तपती धूप में
ठंढी फुहार हो तुम
ख़िज़ा में आई
'पहली' बहार हो तुम
तुम शरारत भी हो
तो नज़ाक़त भी तुम हो
अदा के समंदर में
उठता ज्वार हो तुम
हम तो
सादा तबियत ठहरे
अरमां की खेती
सींचा करते हैं
दूर से ही तुम्हें
तका करते हैं
मन में ही तुम्हें
पूजा करते हैं
ज़िन्दगी इक बार
मिलती है
सब अपने-अपने
हिस्से की जी लेते हैं
कोई हक़ीक़त कर लेता है
ख़्वाबों को
और हम ख़्वाबों में
मोहब्बत कर लेते हैं
ये दिल है
तन्हा है बेचारा
कितना बोझ डालूं
अरमानों के
वाक़िफ़ हूं मैं भी
दिल भी इससे अंजान नहीं
किसी को मिलता कहाँ है
मुकम्मल, दिल का जहां कहीं
किसी के बिना कोई 'आवाज़'
कभी मरता नहीं
तपिश लाख पड़े
सांसों के समंदर पर
उलझ जाए भले
मगर ये सूखता नहीं
'आवाज़'
No comments:
Post a Comment