ज़िंदगी में छोटी छोटी बातें
हमसे क्यूं बिसर जाती हैं
घर में माँ, बीवी, बहनें
पहले क्यूं नहीं खाती हैं
ताज़ी चीज़ें ख़ुशी-ख़ुशी
सब को वो खिलाती हैं
अपने लिए वो अकसर
ठंढी-बासी ही बचाती हैं
क्यूं होता है ऐसा
जो रिवाज बन गया है
हर फैसले में अकसर
आख़िर में पूछी जाती हैं
सब्र का तो जैसे
वो बीड़ा उठा लेतीं हैं
रोज़े मिन्नतों से अपने
घर को बचा लेतीं हैं
हया, बंदिशें ये सब
बस उनके लिए ही क्यूं
मर्दों की इस बस्ती में
मज़लूम सी वो ही क्यूं
हम करें कुछ बेहतर तो
वाह-वाही दूर तलक जाती है
वो करें तो उनके हिस्से
इक मुस्कान तक नहीं आती है
माना कि ज़माना बदल गया
कांधे से हमारे उनका
कांधा भी मिल गया
फिर भी होती हैं जब शादियां
तो वो ही दहेज़ क्यूं लाती हैं
हर शौक़ अपना, वही क्यूं छोड़ें
आसमां वो भी छू सकती हैं
चलिए पंख उनके
उन्हें लौटा दें 'आवाज़'
अब उनके उड़ने की बारी है
'आवाज़'
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