हर रोज़ खुद से ही
अपनी शुरुआत होती है
बातें नहीं बस हल्की सी
मुझसे मेरी मुलाक़ात होती है
नाज़ुक़ किरणें आती तो
अब भी उसी अदा से हैं
पर रूह से उसकी गुज़र
कुछ रूखे अंदाज़ से होती है
लम्हों की चुस्कियों का
ज़ायक़ा कुछ बदल सा गया है
चीज़ें तो वही डाली मैंने पर
उसे तेरी कमी शायद खलती है
दिन मज़दूरों सा
थक के चूर होता है
फिर भी रोज़ चूल्हे सी
यहाँ हर रात जलती है
तपती रातों के सन्नाटेपन से
इक 'आवाज़' निकलती है
शायद फिर से पलट गए हों वो पन्ने
जहाँ हर लम्हा कुछ यादें पिघलती हैं
'आवाज़'
Itni khoobsurat ki baar baar paḍhne ko Jee chahe....Awsome word bhe jiske aage feeka lage👌👏
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