Wednesday, April 25, 2018

ख़ुदा बन जाता है




जब भी कोई फ़ैसला
ग़लती से, सही हो जाता है 
इंसा उसी दम,
ख़ुद ही ख़ुदा बन जाता है 

ज़र्रा है वो ज़मीं पर 
नादां है, भूल जाता है 
अलबत्ता ज़र्रे को आफ़ताब 
वो ख़ुदा ही बनाता है 

सूरज को तपिश देता है 
चंदा पे मेहरबां हो जाता है 
ज़मीं पे बिछाने को हरियाली 
बादल को बरसा जाता है 

फूलों में रंग-ओ-बू को 
बिखराने की अदा देता है 
कांटों को दामन  
थाम लेने की वफ़ा देता है 

हवा को इतरा दे यूंही तो 
शायर ग़ज़ल कह जाता है 
डाल दे जो रफ़्तार की 'अकड़'
शहर का शहर पल में उजड़ जाता है 

इंसां हैं हम, चलो अभी रब के 
शुक्रगुज़ार हो जाएं 'आवाज़'
ज़िंदगी का सफर लम्बा है मगर 
चलता है, यूंही कहीं थम जाता है 
                                        'आवाज़' 





Monday, April 23, 2018

'ग़ज़ल' बना लिया

 
कहते हैं सोच,
         पहचान है इंसान की 
               हमने भी ख़्यालों को अपने 
                                         'ग़ज़ल' बना लिया 
                               'आवाज़'

Monday, April 16, 2018

नफ़रतों की हवा...



नफ़रतों की ना जाने कैसे,
यूं हवा चल गयी 'आवाज़'
यहां तिनका-तिनका
बिखर गया है आशियाँ 'अपना'
                                          'आवाज़'

Friday, April 13, 2018

इक बूंद ख़ुशी की



इक बूंद ख़ुशी की 
समंदर में लहरें जगा गयी 
ग़म का जो गिरे क़तरा अगर 
सोचो  फिर क्या तूफ़ान हो 
                              'आवाज़'

Thursday, April 12, 2018

दर-ओ-दीवार गवाही देती हैं


गर यादों का गला घोंट सकता 
तो बेशक तुझे भुला देता 
यहां तो दर-ओ-दीवार भी 
तेरे होने की गवाही देती हैं 

हवाएं जब भी गुज़रती हैं इधर से 
तेरी खुशबू का पता दे जाती हैं 
ज़ुल्फ़ों से जो झटका था तुमने 
दरीचे से अब भी वो फुहार चली आती है  

तेरे काजल की स्याही का 
अब भी तलबगार है ये बदली 
लाख बह जाए तूफ़ां भी अगर 
दिल पर ये बरस नहीं पाती हैं 

पर्दे की आड़ से ज्यों ही 
झांकती हैं नज़रें तेरी 
आज भी आंखें मेरी 
शर्माती हैं, झुक जाती हैं 

उधर फ़्रिज पे लगी स्माइली 
हू-ब-हू  तुझसा ही मुस्काती है 
सोफ़े पे पड़ती हैं जब भी सिलवटें 
तू यहीं आस-पास नज़र आती है 

नलके से जब भी टपकती हैं बूंदें 
दौड़ के वहां पहुंच जाता हूं 'आवाज़'
तेरी डांट, वो ख़बरदार उस पल 
मुझको तेरी बहुत याद दिलाती है 
                                           'आवाज़'



Wednesday, April 11, 2018

खंडहर ना हुआ होता


हंसी हो सकते गर सारे लम्हात ज़िन्दगी के 
तो दिल का महल, यहां खंडहर ना हुआ होता 
रहता आज भी चहुं ओर चराग़-ए-हुस्न रोशन 
दर्द का दिया यूं दिन-रात जल ना रहा होता  
                                                                         'आवाज़'

Tuesday, April 10, 2018

लफ़्ज़ों से खेल-खेल कर

 लफ़्ज़ों से खेल-खेल कर 
ख़ुद से ही खेल बैठा हूं मैं 
जब भी कही अपने दिल की, 
अदा से उसने वाह! कह दिया... 
                                     'आवाज़'

Sunday, April 8, 2018

मेरा आईना




नादां था मैं, 
अब जाके समझा 
ज़माने की बेबसी,
यहाँ मेरा ही आईना 
उल्टा दिखाता है मुझे 
                             'आवाज़'

Saturday, April 7, 2018

दीवारों से गुफ़्तगू




करता हूं दीवारों से गुफ़्तगू अकसर 
पर हैरां हूं !
हमारी बातें इन्हें सब याद हैं 
कान होते हैं, अब तक यही सुना मगर 
पर तुम्हारे एहसास भी सारे इनके पास हैं 
                                                            'आवाज़'

Monday, April 2, 2018

A 'दिल' शायर ही तो है


चाँद पूरा हो फ़लक पे 
या छुप जाए बादल में 
दिखता उसमें सनम मेरा 
दिल की ये चाहत ही तो है 

घने बादल हों छाये हुए 
ज़ुल्फ़ों सी, हों लहराए हुए 
जब अंधियारा सा छा जाए 
फिर ये दिल शायर ही तो है 

आँखों को झील मैं समझूं 
होठों को पंखुड़ी गुलाब सी 
गर्दन को सुराही कहे दिल 
ये नज़र-ए-आशिक़ ही तो है 

चाल है तेरी नागन सी 
कोयल सी तेरी 'आवाज़' लगे 
हिरनों सी लगे आंखें तेरी 
ये दिल मेरा पागल ही तो है 
                                        'आवाज़'