Monday, December 31, 2018

मेरा इश्क़ उजला हुआ


मेरा इश्क़ उजला हुआ 
                               तेरे हुस्न की चाँदनी में,
                               मेरा इश्क़ यूं उजला हुआ 
                               तू पास रहा फिर भी न जाने क्यूं ,
                               मेरा ना कोई साया बना 
                               पर दूर जाते ही तेरे,
                               मुझसे तेरी परछाईं निकल आयी

                                                                        'आवाज़'

Monday, November 19, 2018

लफ़्ज़ों से खेलता हूं मैं

तू कहता है लफ़्ज़ों से बख़ूबी खेलता हूं मैं 
मैं कहता हूं, बस अपने दिल की बोलता हूं मैं 

नज़रें मिलाते, तो दरम्यां अल्फ़ाज़ क्यूं कर आते 
अपनी आंखों से यूं राज़-ए-दिल खोलता हूं मैं 

तेरी आंखों की लेहरों पर, इक अक्स उभरता है 
तू बेख़बर भले सही, पर हर बार उसे देखता हूं मैं 

इतनी पास होकर भी, तू क़रीब नहीं होता 
लफ़्ज़ों से तुझे, इसलिए झिंझोरता हूं मैं 

ख़्यालों में मेरे, तू अक्सर होता है मगर 
ग़म ये है, तेरी यादों में नहीं रहता हूँ मैं 

गवाही ख़ुदा की लेनी चाहो, तो आंखें मूंद लो  
ख़ुदाया ! सच के सिवा कुछ नहीं बोलता हूं मैं 

क़समों और रस्मों से ऊँचा है रिश्ता हमारा 
मोहब्बत  के नाम पर, फ़रेब नहीं बेचता हूं मैं 

जहान से अपनी, मिले फ़ुर्सत, तो दे लेना 'आवाज़'
साया भी गुज़रे तुम्हारा, तो नाम-ए-उल्फ़त लेता हूं मैं  

'आवाज़'

Thursday, November 1, 2018

क़लम

क़लम से मेरी, बड़ी लम्बी बात हुई है 
बातों बातों में, मेरी उससे तकरार हुई है 

मैंने कहा, तू आदतों से बाज़ आती क्यों नहीं है 
तू जो कर रही है देख, वो बात सही नहीं है 

दिल की बेबसी का, तू इज़हार करती है 
जिसे छुपना था, तू उसे सर--बाज़ार करती है

तुझे भी तो इश्क़ है, हर सादे लम्हे से
ज्यों ही देखती है, लिखने को बेक़रार होती है 

दर असल तू , मुझसे हर पल जलती है
मेरे ही लफ़्ज़ों  से, अपने दिल की कहती है

इक आग तो मेरे अंदर भी सुलगती है 
क़तरे-क़तरे में तुझसे, मेरी ग़ज़ल बहती है 

गर तू होती, तो जाने क्या होता मैं 'आवाज़'
लफ़्ज़ होते मेरे, होता मेरी शायरी का आग़ाज़
                                                                          "आवाज़"

Monday, October 29, 2018

किताब-ए-दिल

पलकें झुका लोगी, तो किताब-ए-दिल कैसे पढ़ पाऊंगा 
सवालात जो मन में हैं, उनके जवाबात कैसे जी पाऊंगा 

हया कहूं, अदा कहूं, या सितम-ए-हुस्न मान लूं इसे 
जुंबिश-ए-लब भी ना हुई, तो ग़ज़ल कैसे लिख पाऊंगा 

आइना सा लगता है कभी कभी ये तेरा चेहरा मुझे 
दिल के अरमानों की झलक देखूंगा तो मर जाऊंगा 

गेसू, ये जो तेरे तूने क़ैद कर रखे हैं, घटा से हैं 
खुल के बिखर जाएं तो मैं खुद ही बरस जाऊंगा 

आहटें तेरे क़दमों की, रूह तक दस्तक दे जाती हैं 
दो क़दम तुम चलीं, तो क़सम से मैं दौड़ जाऊंगा 

डर है तुम्हें, सब्र का दामन ना छूट जाए मुझसे 
तुम यक़ीं को थामे रखना, मैं हौसला बन जाऊंगा 

दास्तान-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ ही ग़ज़ल है "आवाज़"
तू न मिली मुझको, तो मैं नज़्म ही लिख जाऊंगा 

                                                                      "आवाज़"

स्याह दिल


 सुर्ख़ था  जब तलक, तेरा ही अक्स उभरता था 
अब स्याह दिल पर ज़ुल्फ़ों का साया नहीं बनता

हद-ए-निगाह में अब  सिर्फ़ धुंआ धुआं सा है 
इस धुंध में कोई तस्वीर, कोई चेहरा नहीं दिखता 

इक मैंने, दामन का इक सिरा तुमने गर थामा होता 
तो फिर हाथों से चाहत का यूं आंचल नहीं फिसलता 


 अगर तू वाक़िफ़ होता, मिज़ाज-ए-इश्क़ मेरे 
तो तेरे हुस्न का अंदाज़, यूं बदला सा नहीं मिलता 

इक दर्द, इक टीस जो उभरता है तन्हा रातों में 
तो बच्चा सा ये दिल भी, बिना मचले नहीं रहता 

ये  दिल है हुज़ूर, ये कोई अदालत नहीं है 
यहां इश्क़ भी अपनी दलीलें नहीं सुनता 

 ख़ुद ही ख़ुद को क्या इल्ज़ाम दूं ऐ 'आवाज़'
 दो क़दम भी वो चलता, तो रास्ता धुंधला नहीं रहता 

                                                     'आवाज़'



Wednesday, September 19, 2018

हया को अना समझ बैठे हैं


हया को अना समझ बैठे हैं...

देखो ना! वो क्या का क्या कर बैठे हैं 
हया को, वो मेरी अना समझ बैठे हैं
वैसे तो दिल का यूं भी बुरा नहीं मैं 
पर मुझपे वो बिजली गिराए बैठे हैं.

तलब हुई, पर आंखों ने हिमाक़त न की 
हिचक इतनी कि नज़रों को झुकाए बैठे हैं 
ये आदाब-ए-इश्क़ है, दयार-ए-हुस्न में 
कि अपनी चाहतों को, यूं कर दबाए बैठे हैं. 

नज़रों को चस्का है, ज़ाएक़-ए-दीदार का 
फिर भी फ़िक्र, संसार की लगाए बैठे हैं 
ग़लत फ़हमियां, सुपुर्द-ए-ख़ाक कर देती हैं 
अपने दिल को ये, सदियों से सिखाए बैठे हैं  

धड़कनों की होती, तो उन तक पहुँचती 'आवाज़'
यहां तो लोग, बस कहे पे चले जाते हैं 
कौन कैसा है, जानने की मोहलत किसे है पड़ी 
मतलब की दुनिया है, बस उसी की लौ लगाए बैठे हैं

                                                                     'आवाज़'





Monday, September 17, 2018

चुप थे अल्फ़ाज़...

चुप थे अल्फ़ाज़ उस दम 
ख़ामोशी भी लबों के साथ थी 
आंखें तलाश-ए-सुकूं पर थीं 
बस, सांसें कह रही हर बात थीं 

शीशे सी चमकती कुछ बूंदें 
लम्हे सी, फिसलती दिन-रात थी 
और रंग-ए-जुनूं  से खिंच रही 
वो इक हसीं, तस्वीर-ए-यार थी 

लहरें भी उठीं, मौजें भी इतराईं 
पर साहिल पे खड़ी सब्र की दीवार थी 
खोया ना हमने होश-ओ-हवास 
थपेड़ों को भी न इसकी आस थी 

आंखो में पल रहे थे जो सपने 
गिरे तो कांच सी उसकी 'आवाज़' थी
अब तू ही बता दे मेरे दिल मुझे 
आग़ाज़ था वो या मुहब्बत की शाम थी 

                                                                           'आवाज़'


Saturday, July 21, 2018

यादों से तर

यहां हर लम्हे का 
अगले ही पल में गुज़र होता है 
हाथ ख़ाली दिखता तो है 
मगर यादों से वो तर होता है 

उस लम्हे पर भी 
कुछ बक़ाया रहता नहीं अपना 
यादें देकर हमें वो
हमारा चुकता हिसाब कर देता है 

खुशियां या ग़म, जो मयस्सर हो 
बेशक तक़दीर-ए-लम्हा है 
पर हमारे हाथों की लकीरों का भी 
यहां असर होता है

मुलाक़ातों का तुझसे 
अब क्या कहें ऐ 'आवाज़'
रस्ता भूल भी जाऊं तो  
दिल उसी के घर पहुंचाता है 

                                       'आवाज़'




Monday, May 14, 2018

'मदर्स डे'


कल हर तरफ शोर सुना मैंने 
पता चला 'मदर्स डे' था 
जी भर इज़हार किया सब ने 
शायद वो माँ के लिए प्यार ही था 

शायद फिर से, अब पूरे साल
माँ को इस बात का इंतज़ार रहे 
फिर से आए उसका लाडला 
गले लगाए, प्यार का इज़हार करे 

कल की ख़ुशी का भी वो 
आज में लुत्फ़ उठा लेती है 
सांसें हैं,  क्या खबर कल को 
चलती हैं या रुक जाती हैं 

माँ के लिए हम इज़हार करें 
तो शोर हो ही जाता है 
ममता कुछ भी कर ले 
वो इग्नोर हो ही जाता है 

माँ जब नींदें सुलाती है 
तो हमें ख़बर तक नहीं होती 
गर वो वक़्त पे जगा दे 
तो हंगामा हो जाता है 

 माँ अपना निवाला खिला दे 
भनक तक नहीं लगती हमें 
हमें वक़्त पे रोटी  ना मिल पाए 
तो  कोहराम सा हो जाता है 

माँ कहाँ दौलत ढूंढती है कभी
हमारे दो पल मिल जाएं, तो खुश 
कहाँ चाहत शहद-मिठाई की है 
हमसे दो मीठे बोल मिल जाएं, तो खुश 

माँ प्यार की वो दरिया है 'आवाज़'
जो खामोश पर मुसलसल बहती है 
हम औलाद वो मौज-ए-दरिया हैं 
जो बेमतलब ख़्वाह-मख़्वाह उछलती है 
                                                     'आवाज़' 



Saturday, May 12, 2018

दिल का भी अपना दिमाग़ होता है...

रात भर नींद तक आई नहीं, फिर भी 
सपने में मैंने हसीं ख़्वाब देखा है 
सोच कर ज़ेहन हैरां था मेरा, मगर 
सुना है, दिल का भी अपना दिमाग़ होता है 

अब समझा, दिल यह ज़ेहन पे ग़ालिब क्यूं है 
यहां तो, दो दिमाग़ों ने क़ब्ज़ा जमा रखा है 
पहले ही दो दिलों से परेशां था मैं 'आ-दिल'
इक नाम में है, तो दूजा सीने में छुपा रखा है

दिल ने बचपना किया होगा 
क़सम से अब मैं न कभी यह मानूंगा 
ग़लती से अगर, जो मिस्टेक हुई होगी 
उसे भी अब तो मैं, ख़ता ही जानूंगा
सरेंडर करते हुए :-
ना! अब तो दिल की ही सुननी होगी 'आवाज़'
पहले ही जद्दोजेहद ने परवान चढ़ा रखा है 
दिल अपने दिमाग़ से चलता तो भी मना लेता
पर वहां तो मैंने अपनी 'बीवी' को बिठा रखा है 
                                                                                                 'आवाज़'



Wednesday, April 25, 2018

ख़ुदा बन जाता है




जब भी कोई फ़ैसला
ग़लती से, सही हो जाता है 
इंसा उसी दम,
ख़ुद ही ख़ुदा बन जाता है 

ज़र्रा है वो ज़मीं पर 
नादां है, भूल जाता है 
अलबत्ता ज़र्रे को आफ़ताब 
वो ख़ुदा ही बनाता है 

सूरज को तपिश देता है 
चंदा पे मेहरबां हो जाता है 
ज़मीं पे बिछाने को हरियाली 
बादल को बरसा जाता है 

फूलों में रंग-ओ-बू को 
बिखराने की अदा देता है 
कांटों को दामन  
थाम लेने की वफ़ा देता है 

हवा को इतरा दे यूंही तो 
शायर ग़ज़ल कह जाता है 
डाल दे जो रफ़्तार की 'अकड़'
शहर का शहर पल में उजड़ जाता है 

इंसां हैं हम, चलो अभी रब के 
शुक्रगुज़ार हो जाएं 'आवाज़'
ज़िंदगी का सफर लम्बा है मगर 
चलता है, यूंही कहीं थम जाता है 
                                        'आवाज़' 





Monday, April 23, 2018

'ग़ज़ल' बना लिया

 
कहते हैं सोच,
         पहचान है इंसान की 
               हमने भी ख़्यालों को अपने 
                                         'ग़ज़ल' बना लिया 
                               'आवाज़'

Monday, April 16, 2018

नफ़रतों की हवा...



नफ़रतों की ना जाने कैसे,
यूं हवा चल गयी 'आवाज़'
यहां तिनका-तिनका
बिखर गया है आशियाँ 'अपना'
                                          'आवाज़'

Friday, April 13, 2018

इक बूंद ख़ुशी की



इक बूंद ख़ुशी की 
समंदर में लहरें जगा गयी 
ग़म का जो गिरे क़तरा अगर 
सोचो  फिर क्या तूफ़ान हो 
                              'आवाज़'

Thursday, April 12, 2018

दर-ओ-दीवार गवाही देती हैं


गर यादों का गला घोंट सकता 
तो बेशक तुझे भुला देता 
यहां तो दर-ओ-दीवार भी 
तेरे होने की गवाही देती हैं 

हवाएं जब भी गुज़रती हैं इधर से 
तेरी खुशबू का पता दे जाती हैं 
ज़ुल्फ़ों से जो झटका था तुमने 
दरीचे से अब भी वो फुहार चली आती है  

तेरे काजल की स्याही का 
अब भी तलबगार है ये बदली 
लाख बह जाए तूफ़ां भी अगर 
दिल पर ये बरस नहीं पाती हैं 

पर्दे की आड़ से ज्यों ही 
झांकती हैं नज़रें तेरी 
आज भी आंखें मेरी 
शर्माती हैं, झुक जाती हैं 

उधर फ़्रिज पे लगी स्माइली 
हू-ब-हू  तुझसा ही मुस्काती है 
सोफ़े पे पड़ती हैं जब भी सिलवटें 
तू यहीं आस-पास नज़र आती है 

नलके से जब भी टपकती हैं बूंदें 
दौड़ के वहां पहुंच जाता हूं 'आवाज़'
तेरी डांट, वो ख़बरदार उस पल 
मुझको तेरी बहुत याद दिलाती है 
                                           'आवाज़'



Wednesday, April 11, 2018

खंडहर ना हुआ होता


हंसी हो सकते गर सारे लम्हात ज़िन्दगी के 
तो दिल का महल, यहां खंडहर ना हुआ होता 
रहता आज भी चहुं ओर चराग़-ए-हुस्न रोशन 
दर्द का दिया यूं दिन-रात जल ना रहा होता  
                                                                         'आवाज़'

Tuesday, April 10, 2018

लफ़्ज़ों से खेल-खेल कर

 लफ़्ज़ों से खेल-खेल कर 
ख़ुद से ही खेल बैठा हूं मैं 
जब भी कही अपने दिल की, 
अदा से उसने वाह! कह दिया... 
                                     'आवाज़'