इस जहां का भी
अजब तौर देखा मैंने
नुमाईश-ए-ग़म को यहां
सब 'ग़ज़ल' समझते हैं
ग़म से तपते
अल्फ़ाज़ भी हो गर
जूनून-ए-ख़ुलूस से
सब, वाह! वाह! करते हैं
दर्द मेरा गहराई में
जैसे जैसे उतरता है
यारों के दिल भी
शोखियों से मचलते हैं
ख़ुदा ना करे डूब जाऊं
इस गहरे समंदर में
वरना तमाशाई तो यहां
सरेआम मिलते हैं
ज़ायक़े का अंदाज़ भी
हुआ कुछ निराला देखो
अब ख़ुशी अपनी और दर्द
औरों के ही अच्छे लगते हैं
ज़ुबान-ए-दिल कहां
किसी की हद में रही 'आवाज़'
जो तन लागे ये दर्द
बस वो ही समझते हैं
'आवाज़'
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