Monday, February 26, 2018

सज़ा मेरी भी मुक़र्रर हो

सज़ा मेरी भी मुक़र्रर हो 
यही चाहता हूँ मैं 
ख़तावार हूं 
ये ख़ुद भी जानता हूं मैं 

रिश्ते में आज़माइश का हुनर 
हमने ही तो सिखाया था उसे 
जब आई इम्तेहां की डगर 
तो उससे क्यूं  भागता हूँ मैं 

क़ुसूर क्या उसका, जो उसने ठाना है 
जो हक़ है, वही तो उसने मांगा है 
हक़ अदा करना नेकी-ए -अज़ीम है 
तो नेकी कमाने से, क्यूं ख़ौफ़ खाता हूं मैं 

ज़माने को हमेशा
'हां' ही भाता है 'आवाज़'
'ना' सुना, तो यूं बेरुख़ी से 
क्यूं मुड़ जाता हूं मैं 

                               'आवाज़'






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