Wednesday, February 21, 2018

मोहब्बत

 मोहब्बत तू इतनी निराली क्यूं है
जब तू दिल में है 
तो फिर ये ख़ाली क्यूं है 
न कोई दस्तक 
ना आहट तेरी 
यहां ख़ामोशी पे फिर
ये हरियाली क्यूं है 

तेरे ख़्यालों में भी 
यही आता होगा  
ये इंसा भी क्या क्या 
सोचता होगा 
पर यक़ीन मान 
ग़म में भी मुस्कुराना चाहता हूं 
तू मेरी हो या ना हो 
तुझे सोच कर ही 
जी जाना चाहता हूं

तेरे न होने पर 
तसव्वुर की बदली भी 
ग़ज़ब ढाती है,
होती है घनघोर मगर 
हक़ीक़त की धूप भी 
यहां निकल आती है

ऐ बादल, तू इधर आ 
हक़ीक़त से छुप-छुपाकर 
यूं बरस जा, कि 
दिन को रातों में बदल जा 
तरसते मन 
तड़पते तन को भिगो कर तू 
जलते अरमानों में धुंआ बन जा 


अब अपनी ख़ामोशी को 
तू तोड़ भी दे 
ऐ मोहब्बत जो सच है 
वो बोल भी दे 
क्या दिल की बस्ती 
भाई नहीं तुझे 
या दिलवालों की अदा 
रास आई नहीं तुझे

वक़्त ठहरा है 
ना ठहरेगा किसी दम 
फिर भी तेरी रज़ा के 
तलबगार हैं हम...                                      'आवाज़'

No comments:

Post a Comment