जैसे तीर जिगर के पार जाएगा
इधर दिल सोच रहा है यूं भी
रहम कुछ तो उन्हें, मुझपे आएगा
होता है इश्क़ में दिल मासूम यूं भी
पालते हैं ख़्याल, कुछ नादान यूं भी
यही अदा इश्क़ में रंग भरती है वरना
ख़ुद को क्यूं खो बैठे, कोई होशमंद यूं भी
न समझे हैं, ना समझेंगें कभी होशवाले
जज़्बात की भी अपनी इक जुबां होती है
आँखों से पहुंचती है दावत-ए-हुस्न और
बातों से लज़्ज़त-ए-इश्क़ पता लगती है
गर सुननी है रज़ामंदी-ए-हुस्न ऐ 'आवाज़'
तो चलो दिल की गहराईयों तक उतरते हैं
ऊपर ऊपर तो उथल-पुथल रहती है अक्सर
वहां पहुंचते हैं, थमते हैं, फिर उनकी हां सुनते हैं
'आवाज़'
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