Wednesday, April 25, 2018

ख़ुदा बन जाता है




जब भी कोई फ़ैसला
ग़लती से, सही हो जाता है 
इंसा उसी दम,
ख़ुद ही ख़ुदा बन जाता है 

ज़र्रा है वो ज़मीं पर 
नादां है, भूल जाता है 
अलबत्ता ज़र्रे को आफ़ताब 
वो ख़ुदा ही बनाता है 

सूरज को तपिश देता है 
चंदा पे मेहरबां हो जाता है 
ज़मीं पे बिछाने को हरियाली 
बादल को बरसा जाता है 

फूलों में रंग-ओ-बू को 
बिखराने की अदा देता है 
कांटों को दामन  
थाम लेने की वफ़ा देता है 

हवा को इतरा दे यूंही तो 
शायर ग़ज़ल कह जाता है 
डाल दे जो रफ़्तार की 'अकड़'
शहर का शहर पल में उजड़ जाता है 

इंसां हैं हम, चलो अभी रब के 
शुक्रगुज़ार हो जाएं 'आवाज़'
ज़िंदगी का सफर लम्बा है मगर 
चलता है, यूंही कहीं थम जाता है 
                                        'आवाज़' 





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