अजीब ओ गऱीब शाम थी वो...
अजीब ओ गऱीब शाम थी वो, पर दिल की मेरे शान थी वो
हम लुट रहे थे सर-ए-आम मगर, बन रही मेरी जान थी वो
अजीब ओ गऱीब शाम थी वो,
अंजान फ़िज़ाएं थीँ, और रुख़ भी हवाओं का मेरे उलट था
वो मेरे लिए मानूस थी, पर जो महसूस हुआ वो अजब था
जैसे अपना कोई बिछड़ गया हो, सदियों पहले इस जहान में
वही आज रु-ब-रु था, मेरे रिश्ते की इस जहान में
अजीब ओ गऱीब शाम थी वो,
उधर आसमान सुर्ख से सियाह हो रहा था
इधर चेहरे से सब कुछ बयां हो रहा था
एक हलचल सी हो रही थी दोनों तरफ मगर
ग़म ये कि सिर्फ मेरा ही प्यार र-वां हो रहा था
अजीब ओ गऱीब शाम थी वो, पर दिल के मेरी शान थी वो
हम लुट रहे थे सर-ए-आम मगर, बन रही मेरी जान थी वो
"आवाज़"
Bahut khubsoorat...sham toh roz aati hai but ye sham mastt hai
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