कुछ रिश्ते बुन जाऊं
आज भी याद है मेरा बचपन मुझको
अम्मी ने कुछ तो बुना था
उंगलियों में एक रंग का
एहसास सा लिपटा था
उलझता घूमता यूंही
उनके हाथों से कुछ अच्छा ही बना था
शायद कोई रिश्ता था
जो बड़ी मुश्किल से सुलझा था
आज भी याद है मेरा बचपन मुझको
अम्मी ने कुछ तो बुना था
उंगलियों में एक रंग का
एहसास सा लिपटा था
उलझता घूमता यूंही
उनके हाथों से कुछ अच्छा ही बना था
शायद कोई रिश्ता था
जो बड़ी मुश्किल से सुलझा था
एक दिन सोचा कुछ मैं भी सुलझाऊं
मैं भी एक अपना सा,
रिश्ता बुन जाऊं
रिश्ता बुन जाऊं
फिर कुछ रंग के एहसास जुटाए
लिपटकर अपनी उंगलियों में
मैंने भी उसे घुमाए
सुलझना था, पर ना जाने क्यूं
वो उलझ सा गया
बड़े ही नाज़ुक़ थे धागे
तो मैं सहम सा गया
पर हारा नहीं,
फिर से एक एहसास लिया
छुपे थे सारे रंग जिसमें
वो सफ़ेद शफ़्फ़ाफ़ लिया
फिर एक सादा रिश्ता तैयार हुआ
जिसे मैंने, मेरे ही नाम किया
इस बार मुझे एक बात समझ आई
हर रिश्ते की होती है अलग बुनाई
समझ सको,
तो आप भी एक काम करना
जहाँ छन जाएं शिकवे गिले
ऐसा ही कुछ नाम बुनना
"आवाज़"
Bina kuchh kahe kaise yahan se guzar jaaun, no wayz...
ReplyDeleteAur bunaai bhi aisi ki, bina shagaf ke...ehsaas se bhara.
Thanks for this complement
ReplyDeletekitne khubsoorat ehsaas hain rishton ki bunawat ke, dil ki gehraiyon ko chhu gaye
ReplyDeleteBilkul sach kahan...humein Urdu seekhane ko bhi mil jaati hai
ReplyDelete