आग़ोश
मैं आग़ोश में न थी,
पर हौले-हौले छू रहा था कोई
थम सी गयी थी पर मुझमें
मुसलसल बह रहा था कोई
चेहरे पे अजब सी मुस्कान थी
क्योंकि मेरे ग़म पी रहा था कोई
शुक्रिया अदा भी करती तो कैसे भला
अपने होठों से, मेरे लब सी रहा था कोई
दुःख तो दामन है ज़िन्दगी का
ओढ़ती हूं, छुपाती हूं खुद को इससे
पर तन्हाई के इस अंधियारे में
मुझमें चमक रहा था कोई
बेला, चमेली, गुलाब,
इसकी खुशबू ही तो पहचान है
पर उसे क्या नाम देती
जो मुझमें महक रहा था कोई
"आवाज़"
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