पलकें झुका लोगी, तो किताब-ए-दिल कैसे पढ़ पाऊंगा
सवालात जो मन में हैं, उनके जवाबात कैसे जी पाऊंगा
हया कहूं, अदा कहूं, या सितम-ए-हुस्न मान लूं इसे
जुंबिश-ए-लब भी ना हुई, तो ग़ज़ल कैसे लिख पाऊंगा
आइना सा लगता है कभी कभी ये तेरा चेहरा मुझे
दिल के अरमानों की झलक देखूंगा तो मर जाऊंगा
गेसू, ये जो तेरे तूने क़ैद कर रखे हैं, घटा से हैं
खुल के बिखर जाएं तो मैं खुद ही बरस जाऊंगा
आहटें तेरे क़दमों की, रूह तक दस्तक दे जाती हैं
दो क़दम तुम चलीं, तो क़सम से मैं दौड़ जाऊंगा
डर है तुम्हें, सब्र का दामन ना छूट जाए मुझसे
तुम यक़ीं को थामे रखना, मैं हौसला बन जाऊंगा
दास्तान-ए-हुस्न-ओ-इश्क़ ही ग़ज़ल है "आवाज़"
तू न मिली मुझको, तो मैं नज़्म ही लिख जाऊंगा
"आवाज़"
No comments:
Post a Comment