Thursday, November 1, 2018

क़लम

क़लम से मेरी, बड़ी लम्बी बात हुई है 
बातों बातों में, मेरी उससे तकरार हुई है 

मैंने कहा, तू आदतों से बाज़ आती क्यों नहीं है 
तू जो कर रही है देख, वो बात सही नहीं है 

दिल की बेबसी का, तू इज़हार करती है 
जिसे छुपना था, तू उसे सर--बाज़ार करती है

तुझे भी तो इश्क़ है, हर सादे लम्हे से
ज्यों ही देखती है, लिखने को बेक़रार होती है 

दर असल तू , मुझसे हर पल जलती है
मेरे ही लफ़्ज़ों  से, अपने दिल की कहती है

इक आग तो मेरे अंदर भी सुलगती है 
क़तरे-क़तरे में तुझसे, मेरी ग़ज़ल बहती है 

गर तू होती, तो जाने क्या होता मैं 'आवाज़'
लफ़्ज़ होते मेरे, होता मेरी शायरी का आग़ाज़
                                                                          "आवाज़"

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