Monday, October 29, 2018

स्याह दिल


 सुर्ख़ था  जब तलक, तेरा ही अक्स उभरता था 
अब स्याह दिल पर ज़ुल्फ़ों का साया नहीं बनता

हद-ए-निगाह में अब  सिर्फ़ धुंआ धुआं सा है 
इस धुंध में कोई तस्वीर, कोई चेहरा नहीं दिखता 

इक मैंने, दामन का इक सिरा तुमने गर थामा होता 
तो फिर हाथों से चाहत का यूं आंचल नहीं फिसलता 


 अगर तू वाक़िफ़ होता, मिज़ाज-ए-इश्क़ मेरे 
तो तेरे हुस्न का अंदाज़, यूं बदला सा नहीं मिलता 

इक दर्द, इक टीस जो उभरता है तन्हा रातों में 
तो बच्चा सा ये दिल भी, बिना मचले नहीं रहता 

ये  दिल है हुज़ूर, ये कोई अदालत नहीं है 
यहां इश्क़ भी अपनी दलीलें नहीं सुनता 

 ख़ुद ही ख़ुद को क्या इल्ज़ाम दूं ऐ 'आवाज़'
 दो क़दम भी वो चलता, तो रास्ता धुंधला नहीं रहता 

                                                     'आवाज़'



1 comment:

  1. Bahut khoob...must say ke..

    Awaz ki ranaiyaan mehka gaayein
    Alfaaz ko.

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