चुप थे अल्फ़ाज़ उस दम
ख़ामोशी भी लबों के साथ थी
आंखें तलाश-ए-सुकूं पर थीं
बस, सांसें कह रही हर बात थीं
शीशे सी चमकती कुछ बूंदें
लम्हे सी, फिसलती दिन-रात थी
और रंग-ए-जुनूं से खिंच रही
वो इक हसीं, तस्वीर-ए-यार थी
लहरें भी उठीं, मौजें भी इतराईं
पर साहिल पे खड़ी सब्र की दीवार थी
खोया ना हमने होश-ओ-हवास
थपेड़ों को भी न इसकी आस थी
आंखो में पल रहे थे जो सपने
गिरे तो कांच सी उसकी 'आवाज़' थी
अब तू ही बता दे मेरे दिल मुझे
आग़ाज़ था वो या मुहब्बत की शाम थी
'आवाज़'
Khamosh hoke bhi,har ek alfaaz ne buland Awaz mein haq ada kiya hai...bahuuutt khoob
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