Thursday, March 9, 2017

Zuban ye meri...


जुबां ये मेरी फिसलती बहुत है 
हवा मिले ना मिले सुलगती बहुत है
जुबां ये मेरी फिसलती बहुत है 


कोशिशें हर बार की, कि कुछ मीठा कह जाऊं 
कुछ ऐसा हो मुझसे, कि मैं सबको भा जाऊं  
मगर कुछ  न कुछ मिलावट हो ही जाती है 
 फिर सारी मेहनत, यूं ख़ाक में मिल जाती है 
जुबां ये मेरी फिसलती बहुत है 


ऐ जुबां, तू तो ज़ायक़ा समझती है  
फिर कड़वा और मीठे में धोखा क्यूं है
कुछ तो  ख़बर होगी तुझको भी 
फिर बेख़बर होकर दिल का तोड़ना क्यूं है 
जुबां ये मेरी फिसलती बहुत है 


सोचता हूं, मामला ज़ायके का है 
या फिर ज़माना ही बदल गया 
कहीं मीठे का मतलब अब 
कड़वा तो नहीं हो गया 
अगर ऐसा  है तो ज़ुबां, तू बेफिक्र हो जा
बदलेगा ज़माना,  तू बस ज़िक्र में लग जा 

फिर मैं कभी ये ना कहूंगा 

जुबां ये मेरी फिसलती बहुत है 
हवा मिले ना मिले सुलगती बहुत है


"आवाज़" 

1 comment:

  1. ज़ुबाँ फिसल ही जाती है..........पर हुमारी ज़ुबाँ नही फिसलेगी आपकी तारीफ़ मे
    बेहतरीन लेखन :)
    http://yugeshkumar05.blogspot.in/

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