शिकन तेरी यादों की
मेरे आज पे सिलवटें बिछा रही हैं
मुस्कान के बीच-ओ-बीच
वो ग़म को बिठा रही हैं
ये भी अजीब आदतें हैं ख़्वाहिशों की
अपनों के दिलों में भी, नफ़रतें जगा रही हैं
कल जो थमा बैठे थे, खुद ही दामन अपना
आज उंगली उनकी, यूंही सरक जाती है
पल भर में ऐसा क्या हुआ
जो नज़रें तक उनकी बदल जाती हैं
धड़कनों की जुबां पर, जो कभी नाम था अपना
वही धड़कनें आज, बस यूंही धड़क जाती हैं
दर दर घूमा, ढूंढा ख़ुद को
मगर अपनों सी राहत, अब अंजानो से आती है
न शिकवा, न गिला रहा दिल को
अब किसी से ऐ 'आवाज़'
बेगाने शहर में ही बस
इस दिल को लज़्ज़तें आती हैं
'आवाज़'
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