Wednesday, September 19, 2018

हया को अना समझ बैठे हैं


हया को अना समझ बैठे हैं...

देखो ना! वो क्या का क्या कर बैठे हैं 
हया को, वो मेरी अना समझ बैठे हैं
वैसे तो दिल का यूं भी बुरा नहीं मैं 
पर मुझपे वो बिजली गिराए बैठे हैं.

तलब हुई, पर आंखों ने हिमाक़त न की 
हिचक इतनी कि नज़रों को झुकाए बैठे हैं 
ये आदाब-ए-इश्क़ है, दयार-ए-हुस्न में 
कि अपनी चाहतों को, यूं कर दबाए बैठे हैं. 

नज़रों को चस्का है, ज़ाएक़-ए-दीदार का 
फिर भी फ़िक्र, संसार की लगाए बैठे हैं 
ग़लत फ़हमियां, सुपुर्द-ए-ख़ाक कर देती हैं 
अपने दिल को ये, सदियों से सिखाए बैठे हैं  

धड़कनों की होती, तो उन तक पहुँचती 'आवाज़'
यहां तो लोग, बस कहे पे चले जाते हैं 
कौन कैसा है, जानने की मोहलत किसे है पड़ी 
मतलब की दुनिया है, बस उसी की लौ लगाए बैठे हैं

                                                                     'आवाज़'





Monday, September 17, 2018

चुप थे अल्फ़ाज़...

चुप थे अल्फ़ाज़ उस दम 
ख़ामोशी भी लबों के साथ थी 
आंखें तलाश-ए-सुकूं पर थीं 
बस, सांसें कह रही हर बात थीं 

शीशे सी चमकती कुछ बूंदें 
लम्हे सी, फिसलती दिन-रात थी 
और रंग-ए-जुनूं  से खिंच रही 
वो इक हसीं, तस्वीर-ए-यार थी 

लहरें भी उठीं, मौजें भी इतराईं 
पर साहिल पे खड़ी सब्र की दीवार थी 
खोया ना हमने होश-ओ-हवास 
थपेड़ों को भी न इसकी आस थी 

आंखो में पल रहे थे जो सपने 
गिरे तो कांच सी उसकी 'आवाज़' थी
अब तू ही बता दे मेरे दिल मुझे 
आग़ाज़ था वो या मुहब्बत की शाम थी 

                                                                           'आवाज़'