तू कहता है लफ़्ज़ों से बख़ूबी खेलता हूं मैं
मैं कहता हूं, बस अपने दिल की बोलता हूं मैं
नज़रें मिलाते, तो दरम्यां अल्फ़ाज़ क्यूं कर आते
अपनी आंखों से यूं राज़-ए-दिल खोलता हूं मैं
तेरी आंखों की लेहरों पर, इक अक्स उभरता है
तू बेख़बर भले सही, पर हर बार उसे देखता हूं मैं
इतनी पास होकर भी, तू क़रीब नहीं होता
लफ़्ज़ों से तुझे, इसलिए झिंझोरता हूं मैं
ख़्यालों में मेरे, तू अक्सर होता है मगर
ग़म ये है, तेरी यादों में नहीं रहता हूँ मैं
गवाही ख़ुदा की लेनी चाहो, तो आंखें मूंद लो
ख़ुदाया ! सच के सिवा कुछ नहीं बोलता हूं मैं
क़समों और रस्मों से ऊँचा है रिश्ता हमारा
मोहब्बत के नाम पर, फ़रेब नहीं बेचता हूं मैं
जहान से अपनी, मिले फ़ुर्सत, तो दे लेना 'आवाज़'
साया भी गुज़रे तुम्हारा, तो नाम-ए-उल्फ़त लेता हूं मैं
'आवाज़'