तिनके का सहारा
'आवाज़'
'डूबते को तिनके का सहारा' इस मुहावरे से हम सभी हिंदुस्तानी वाक़िफ़ हैं, और इसका मतलब भी अच्छी तरह समझते हैं, तो चलिए आज इसी मुहावरे को सच साबित करने वाली एक कहानी सुनाता हूँ, आप भी मेरे साथ रहिएगा क्योंकि कहानी भले ही छोटी है पर इससे जो सीख मिलेगी, उसके असर का दायरा बहुत बड़ा है, ये 'दो बहनों के प्यार' की कहानी है, जहाँ डूबती बड़ी बहन उषा को, छोटी बहन शोभा ने तिनका बन के बचाया है, जिस बड़ी बहन का सब कुछ बिखर चुका था, हिम्मत दम तोड़ चुकी थी और तमन्नायें काफूर हो चुकी थीं उस बड़ी बहन को उसकी मासूमियत ने जीने का मक़सद दिया, फिर शुरू हुआ ज़िन्दगी का नया सफ़र जहाँ ना ही उषा को खुद के लिए कुछ उम्मीदें होती हैं और ना ही अपने लिए ख़ुशी की कोई लहर ही उठती है, बस एक वादा खुद से 'शोभा के चेहरे पे हर वक़्त ख़ुशी की किरणें छाई रहनी चाहिए', एक जद्दोजेहद जो शुरू हुई थी, एक अरसा बीत गया, आज भी जारी है.
कहानी हैदराबाद शहर की है और सच्ची है, एक ऐसा पत्रकार परिवार जो कभी काफी खुश और संपन्न था, पति पत्नी और दो बेटियां, यानि आंगन में खिली थीं दो कलियां, तो आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि घर में खुशियों की खुशबू किस क़दर फैली रहती होगी. पर लग गयी किसी की बुरी नज़र, एक दिन इस बग़ीचे का माली अनहोनी का शिकार हो गया. बात उस वक़्त की है जब बड़ी बहन उषा 5 साल की और छोटी बहन शोभा महज़ डेढ़ साल की थी. पिता आकाशवाणी में वरिष्ठ पत्रकार थे, तो जब भी कोई बड़ी स्टोरीज़ होती इन्हें ही करने को कहा जाता था, इस बार भी कुछ खास था, विजयवाड़ा से एक नयी ट्रेन शुरू की जा रही थी 'कृष्णा एक्सप्रेस', उसका उद्घाटन समारोह कवर करना था, घर से निकले पर जब रेलवे स्टेशन पहुंचे तो हैदराबाद-विजयवाड़ा कनेक्टिंग ट्रेन जा चुकी थी, अब एक ही रास्ता बचा था, रोडवेज़, साथ में और भी स्टाफ थे, सब राज़ी हुए और बाई-रोड जाना तय हुआ, निकले विजयवाड़ा को, पर किसे पता था कि आगे मौत घात लगाए बैठी है, कुछ दूर जाते ही एक हादसा हुआ और उस गाड़ी में बैठे सभी लोगों का ये आखिरी सफ़र साबित हुआ, अब खबर बनाने निकले पिता खुद एक बुरी खबर बन गए, इंतज़ार उनका था पर घर पहुंची उनकी लाश, माँ टूट गयी और छोटी बहन दुनिया के हर ग़म से अंजान और अब बची उषा, इन्हें बिलकुल समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे रिएक्ट करें, खिलौने से खेलने की उम्र में हाथ लगा इतना बड़ा ग़म.
आज उषा अपने जीवन के 40 का आंकड़ा पार कर चुकी हैं और अपने फ़्लैशबैक में जाकर बताती हैं कि " मुझे अब भी वो सभी लम्हें अच्छी तरह याद हैं, जो मेरे पिता जी के गुजरने के बाद के हैं पर उससे पहले का धुंधला-धुंधला सा दिखता है, उन्हें याद हैं वो सारे लम्हें जिसे वो शिद्दत के साथ भुला देना चाहती हैं और वो भी जिसका काफी महत्व हैं उनकी ज़िन्दगी में. उन्हें अक्सर ये महसूस होता है कि 5 साल की उस छोटी सी ही उम्र में वो बड़ी हो गयीं थीं , क्यूंकि एक तरफ़ बिखरी माँ तो दूसरी तरफ हर ग़म से बेपरवाह शोभा थी और सामने थी पिता जी की लाश और उसी वक़्त उषा ने अपनी छोटी और नाज़ुक बाहों में परिवार को समेट लिया। माँ वर्किंग थीं तो नन्ही शोभा की ज़िम्मेदारी सीधे उषा पे आन पड़ी, वो अक्सर घर पहले आ जाया करती थीं और शोभा की हर एक ज़रूरत का ख्याल रखते-रखते अपने मासूम हाथों से उसका लालन पालन करने लगी थीं. वक़्त गुज़रता गया दोनों बहनें बड़ी होती गयीं और माँ बुढ़ापे की दहलीज़ की ओर बढ़ती गयीं, माँ की ज़िम्मेदारी होती है बच्चों को संभालने की, पर इन दोनों बच्चों ने माँ की ज़िम्मेदारी उठा ली थी. एक तरफ ये सब चल रहा था तो दूसरी तरफ वक़्त अपनी रफ़्तार पे था, और कभी कभी तो रफ़्तार से कहीं ज़्यादा तेज़ भी...ना जाने किस बात की जल्दी थी उसे, और फिर वक़्त की एक जमात जा पहुंची 1994 में,
माँ 1994 में जॉब से रिटायर हुईं, वो आकाशवाणी में डायरेक्टर के पद पे थीं, अब जब बाहरी ज़िम्मेदारियों से माँ को छुटकारा मिला तो अब बारी थी माँ को अपनी पारी खेलने की, दो बेटियों की माँ ने अब उनके हाथ पीले करने की सोची और 1994 में हाथ पीले हुए बड़ी बेटी उषा के, वह बंध गयीं प्रीति बंधन में, इस तरह बरसों से जीवन पर छाया खालीपन दूर किया नरेंद्र ने, क्यूंकि नरेंद्र पिता की कमी को एक ज़िम्मेदार पति और समझदार बेटा बनकर पूरी कर रहे थे, कहते हैं वक़्त हर ज़ख्म को भर देता है, नरेंद्र इस परिवार में एक मरहम बन कर आये थे. दूसरी तरफ नरेंद्र और उषा की बीच प्रेम के साथ-साथ दोस्ती का भाव भी तेज़ी से बढ़ रहा था, दरअसल उषा और नरेंद्र एक ही मीडिया फ़र्म में काम करते थे, फिर पति-पत्नी के पवित्र बंधन में बंधे, और नए साथ-साथ इन दोनों के बीच पुरानी पर बहुत सुंदर दोस्ती पल रही थी, आलम ये था कि जहाँ भी ये दोनों जाते इन्हें बेस्ट कपल के उदाहरण के रूप में पेश किया जाता, इन दोनों ने अपनी ज़िन्दगी को कांधे से कांधा मिलकर मुस्कुराते हुए जिया, फिर घर में नया मेहमान आया. परिवार की खुशियां एक बार फिर से ट्रैक पे आने लगी थी...1998, इसी साल उषा ने प्राइवेट फ़र्म छोड़ कर आकाशवाणी के न्यूज़ डिपार्टमेंट में जॉइन कर लिया, और उसके पीछे वजह सिर्फ ये कि यहां अपना सा माहौल मिल रहा था, वो जगह जहां पिता का सम्मान पल रहा था, वो जगह जहां माँ का प्यार और संस्कार मौजूद था. इन दिनों वक़्त खुशियों का दामन थामे जा रहा था, सब कुछ सुहाना लगने लगा था पर इस बात की ख़बर किसी को नहीं थी कि सामने से ग़म का सैलाब बड़ी ही तेज़ी उनकी ओर आ रहा है, और फिर एक दिन मातम की चीख़ ऐसी निकली कि एक मासूम के हाथों से ममता का आँचल फिसल गया, उषा ने अपना कल खो दिया, उनकी महज़ डेढ़ साल की बेटी 'शौर्या' ने पूरे परिवार की ख़ुशी को अपने साथ छुपा कर ले गयी, अब हाथ खाली और आंखें भरी-भरी रहने लगीं।
हर माँ-बाप की तमन्ना होती है कि वो ज़िन्दगी का आखिरी सफर औलाद के कांधों के सहारे तय करे, पर वो तमन्ना तार तार हो गयी और साथ ही ऐसा ज़ख्म लगा कि नासूर हो गया सभी के लिए, बाप अपने बेटी को कन्धा देकर लौटा था. खुशियों ने एक बार फिर मुंह मोड़ लिया था, सन्नाटा सा था सबकी ज़िन्दगी में, पर जीना मजबूरी थी, सब आगे बढ़े पर बिना किसी मक़सद, बिना किसी उत्साह के. इधर एक लाचार बाप अजीब सी टीस, एक चुभन को साथ लिए जिए जा रहा था, ज़ख्म सूखने के बजाए और गहरा होता जा रहा था, ऐसा लग रहा था कि अब कांधा उस बोझ को सह नहीं पा रहा, एक बाप ज़िन्दगी से हार रहा था, और इसी बीच 2011 में एक बार फिर से उषा की ज़िन्दगी लड़खड़ाई, नरेंद्र को ब्रेन ट्यूमर डायग्नोस हुआ, पर अच्छे होने की उम्मीद ज़्यादा थी, इलाज शुरू हुआ, हर मुमकिन कोशिश की जा रही डॉक्टर की तरफ़ से, कामयाबी भी मिली, अच्छे हुए घर आए, नॉर्मल लाइफ चली फिर प्रॉब्लम, और ऐसा कई बार हुआ, और इन कई बार के बीच 4 मेजर और 2 माइनर ऑपरेशन भी हुए.
अब पिक्चर में माँ एक बार फिर शामिल होती हैं, और इस बार माँ डबल प्रेशर के साथ आती हैं, एक उम्र की नज़ाक़त और दूसरा बेटे समान नरेंद्र की ये स्थिति, उषा का विश्वास जितना मज़बूत था माँ का धैर्य उतना ही पस्त होता हुआ, नतीजा अब माँ भी हॉस्पीटलाइज़, उषा के लिए ये समय बहुत ही परेशानियों भरा गुज़र रहा था, एक समय ऐसा आया कि नरेंद्र और माँ जी की सर्जरी एक ही तारीख़ में और दो अलग हॉस्पिटल में, अब ये दोस्तों-रिश्तेदारों के लिए इम्तिहान की घड़ी थी, सबको आवाज़ लगाई उषा ने, पर हर जगह से उनकी आवाज़ टकरा कर यूंही वापस आ गयी, कोई बाहर साथ देने के लिए नहीं निकला, आखिर में उन्होंने डॉक्टर्स से विनती की और दोनों ऑपरेशन दो अलग अलग समय पर अरेंज कराया, छोटी बहन शोभा ने खाने पीने का ज़िम्मा संभाला और उषा ने ग़म की दरबानी की, ताकि कहीं वो फिर से खुशियों में सेंध न मार दे, ऑपरेशन हुआ और दोनों वापस घर आए.
आज उषा अपने जीवन के 40 का आंकड़ा पार कर चुकी हैं और अपने फ़्लैशबैक में जाकर बताती हैं कि " मुझे अब भी वो सभी लम्हें अच्छी तरह याद हैं, जो मेरे पिता जी के गुजरने के बाद के हैं पर उससे पहले का धुंधला-धुंधला सा दिखता है, उन्हें याद हैं वो सारे लम्हें जिसे वो शिद्दत के साथ भुला देना चाहती हैं और वो भी जिसका काफी महत्व हैं उनकी ज़िन्दगी में. उन्हें अक्सर ये महसूस होता है कि 5 साल की उस छोटी सी ही उम्र में वो बड़ी हो गयीं थीं , क्यूंकि एक तरफ़ बिखरी माँ तो दूसरी तरफ हर ग़म से बेपरवाह शोभा थी और सामने थी पिता जी की लाश और उसी वक़्त उषा ने अपनी छोटी और नाज़ुक बाहों में परिवार को समेट लिया। माँ वर्किंग थीं तो नन्ही शोभा की ज़िम्मेदारी सीधे उषा पे आन पड़ी, वो अक्सर घर पहले आ जाया करती थीं और शोभा की हर एक ज़रूरत का ख्याल रखते-रखते अपने मासूम हाथों से उसका लालन पालन करने लगी थीं. वक़्त गुज़रता गया दोनों बहनें बड़ी होती गयीं और माँ बुढ़ापे की दहलीज़ की ओर बढ़ती गयीं, माँ की ज़िम्मेदारी होती है बच्चों को संभालने की, पर इन दोनों बच्चों ने माँ की ज़िम्मेदारी उठा ली थी. एक तरफ ये सब चल रहा था तो दूसरी तरफ वक़्त अपनी रफ़्तार पे था, और कभी कभी तो रफ़्तार से कहीं ज़्यादा तेज़ भी...ना जाने किस बात की जल्दी थी उसे, और फिर वक़्त की एक जमात जा पहुंची 1994 में,
माँ 1994 में जॉब से रिटायर हुईं, वो आकाशवाणी में डायरेक्टर के पद पे थीं, अब जब बाहरी ज़िम्मेदारियों से माँ को छुटकारा मिला तो अब बारी थी माँ को अपनी पारी खेलने की, दो बेटियों की माँ ने अब उनके हाथ पीले करने की सोची और 1994 में हाथ पीले हुए बड़ी बेटी उषा के, वह बंध गयीं प्रीति बंधन में, इस तरह बरसों से जीवन पर छाया खालीपन दूर किया नरेंद्र ने, क्यूंकि नरेंद्र पिता की कमी को एक ज़िम्मेदार पति और समझदार बेटा बनकर पूरी कर रहे थे, कहते हैं वक़्त हर ज़ख्म को भर देता है, नरेंद्र इस परिवार में एक मरहम बन कर आये थे. दूसरी तरफ नरेंद्र और उषा की बीच प्रेम के साथ-साथ दोस्ती का भाव भी तेज़ी से बढ़ रहा था, दरअसल उषा और नरेंद्र एक ही मीडिया फ़र्म में काम करते थे, फिर पति-पत्नी के पवित्र बंधन में बंधे, और नए साथ-साथ इन दोनों के बीच पुरानी पर बहुत सुंदर दोस्ती पल रही थी, आलम ये था कि जहाँ भी ये दोनों जाते इन्हें बेस्ट कपल के उदाहरण के रूप में पेश किया जाता, इन दोनों ने अपनी ज़िन्दगी को कांधे से कांधा मिलकर मुस्कुराते हुए जिया, फिर घर में नया मेहमान आया. परिवार की खुशियां एक बार फिर से ट्रैक पे आने लगी थी...1998, इसी साल उषा ने प्राइवेट फ़र्म छोड़ कर आकाशवाणी के न्यूज़ डिपार्टमेंट में जॉइन कर लिया, और उसके पीछे वजह सिर्फ ये कि यहां अपना सा माहौल मिल रहा था, वो जगह जहां पिता का सम्मान पल रहा था, वो जगह जहां माँ का प्यार और संस्कार मौजूद था. इन दिनों वक़्त खुशियों का दामन थामे जा रहा था, सब कुछ सुहाना लगने लगा था पर इस बात की ख़बर किसी को नहीं थी कि सामने से ग़म का सैलाब बड़ी ही तेज़ी उनकी ओर आ रहा है, और फिर एक दिन मातम की चीख़ ऐसी निकली कि एक मासूम के हाथों से ममता का आँचल फिसल गया, उषा ने अपना कल खो दिया, उनकी महज़ डेढ़ साल की बेटी 'शौर्या' ने पूरे परिवार की ख़ुशी को अपने साथ छुपा कर ले गयी, अब हाथ खाली और आंखें भरी-भरी रहने लगीं।
हर माँ-बाप की तमन्ना होती है कि वो ज़िन्दगी का आखिरी सफर औलाद के कांधों के सहारे तय करे, पर वो तमन्ना तार तार हो गयी और साथ ही ऐसा ज़ख्म लगा कि नासूर हो गया सभी के लिए, बाप अपने बेटी को कन्धा देकर लौटा था. खुशियों ने एक बार फिर मुंह मोड़ लिया था, सन्नाटा सा था सबकी ज़िन्दगी में, पर जीना मजबूरी थी, सब आगे बढ़े पर बिना किसी मक़सद, बिना किसी उत्साह के. इधर एक लाचार बाप अजीब सी टीस, एक चुभन को साथ लिए जिए जा रहा था, ज़ख्म सूखने के बजाए और गहरा होता जा रहा था, ऐसा लग रहा था कि अब कांधा उस बोझ को सह नहीं पा रहा, एक बाप ज़िन्दगी से हार रहा था, और इसी बीच 2011 में एक बार फिर से उषा की ज़िन्दगी लड़खड़ाई, नरेंद्र को ब्रेन ट्यूमर डायग्नोस हुआ, पर अच्छे होने की उम्मीद ज़्यादा थी, इलाज शुरू हुआ, हर मुमकिन कोशिश की जा रही डॉक्टर की तरफ़ से, कामयाबी भी मिली, अच्छे हुए घर आए, नॉर्मल लाइफ चली फिर प्रॉब्लम, और ऐसा कई बार हुआ, और इन कई बार के बीच 4 मेजर और 2 माइनर ऑपरेशन भी हुए.
अब पिक्चर में माँ एक बार फिर शामिल होती हैं, और इस बार माँ डबल प्रेशर के साथ आती हैं, एक उम्र की नज़ाक़त और दूसरा बेटे समान नरेंद्र की ये स्थिति, उषा का विश्वास जितना मज़बूत था माँ का धैर्य उतना ही पस्त होता हुआ, नतीजा अब माँ भी हॉस्पीटलाइज़, उषा के लिए ये समय बहुत ही परेशानियों भरा गुज़र रहा था, एक समय ऐसा आया कि नरेंद्र और माँ जी की सर्जरी एक ही तारीख़ में और दो अलग हॉस्पिटल में, अब ये दोस्तों-रिश्तेदारों के लिए इम्तिहान की घड़ी थी, सबको आवाज़ लगाई उषा ने, पर हर जगह से उनकी आवाज़ टकरा कर यूंही वापस आ गयी, कोई बाहर साथ देने के लिए नहीं निकला, आखिर में उन्होंने डॉक्टर्स से विनती की और दोनों ऑपरेशन दो अलग अलग समय पर अरेंज कराया, छोटी बहन शोभा ने खाने पीने का ज़िम्मा संभाला और उषा ने ग़म की दरबानी की, ताकि कहीं वो फिर से खुशियों में सेंध न मार दे, ऑपरेशन हुआ और दोनों वापस घर आए.
पर ज़िन्दगी भरम के हाथों लग गयी थी, क्यूंकि मुसीबतों ने अब भी वक़्त का दामन नहीं छोड़ा था, फिर भी नरेंद्र उषा को एक सीख दे रहे थे, कहा "किसी से उम्मीद ना रखो, जो तुमसे होता है वो करो" और उषा ने इसे गांठ बांध ली और आज भी उसे साथ बनाये रखा, नरेंद्र आत्मविश्वास के प्रतीक थे पर हालत फिर कुछ बुरी हुई और फिर इलाज शुरू हुआ फिर वो वक़्त भी आया जब उषा और नरेंद्र दोनों को आभास हो गया कि 'ज़िन्दगी की डोर अब हाथों से छूटने वाली है, नरेंद्र ने उषा को बुलाया और कहा "उषा मुझे छोड़ दो, और जाओ तुम अपनी नयी ज़िन्दगी की शुरुआत करो", तो उषा ने बस एक सवाल किया, अगर तुम्हारी जगह मैं होती तो तुम मुझे छोड़ कर चले जाते ? नरेंद्र ने झट से कहा "नहीं बिलकुल नहीं" फिर उषा ने नरेंद्र से लिपट कर कहा "तुमने कैसे सोच लिया की मैं तुम्हें छोड़ कर चली जाउंगी" फिर दोनों की आँखें छलक पड़ीं, पर इन आंसुओं से वक़्त का लिखा मिटा नहीं, इनके प्यार को देखने के बावजूद 2014 थमा नहीं, अप्रैल का महीना उषा और नरेंद्र के बीच बंधी डोर का तो कुछ नहीं बिगाड़ सका पर नरेंद्र की साँसों की डोर को तोड़ गया, उषा अब बुत थीं बस! ना जिस्म में जान, ना ही जीने का कोई मतलब, उनका सहारा, जीवन साथी हाथ छुड़ा गया था, ज़िन्दगी सहरा बन कर रह गयी और हालात की देखिये इतने बड़े ग़म में, मातम भी मनाने नहीं दिया, देखिए कितना लाचार हो सकता है इंसान कभी कभी, आंसू पोछे और लग गयी माँ की सेवा में, जो काफ़ी बीमार थीं, बेटा खोया था उन्होंने, पर बदनसीबी का आलम ये था कि उसे तरस भी नहीं आ रहा था इस परिवार पर, एक लड़की लाचार पर, खुशियां मुड़ के नज़र तक डालना नहीं चाह रही थीं. अप्रेल 2014 नरेंद्र का साथ छूटा उसी साल दिसम्बर में माँ का साया भी सर से उठ गया. उषा की मन:स्थिति उस सीमा रेखा पर जा पहुंची थी जहाँ से कभी वो निराशा की तरफ़ धकेल दी जाती थी तो फिर कभी बहन आशा बनकर अपनी ज़िन्दगी में ले आती, और ये स्थिति कभी कभी आज भी सामने आ जाती है पर जीने का बहाना आज भी शोभा है. शोभा ने भी उषा का साथ दिया, शादी नहीं की, और ये डिसीज़न 'बाई च्वाइस' था, और आज दोनों एक दूसरे में मुकम्मल शरीक़ हैं. शोभा आर्किटेक्ट है जो आज उषा की ज़िन्दगी को अपने प्यार से संवार रही है. उषा बताती हैं की अब शोभा मेरी माँ का रोल अदा कर रही है
इन सबके बावजूद उषा को मौत से शिकायत नहीं है, पर गिला इस बात का है कि "मौत का भी एक तरीक़ा होना चाहिए", ज़िन्दगी में जिसकी ज़रुरत है उसी को क्यों? आप भी सोचिएगा और ग़म से घबरा के यूं मौत को गले मत लगा लीजिएगा, ज़िन्दगी बार बार इम्तिहान लेती है, उसका सामना कीजिए, ज़िन्दगी बहुत ख़ूबसूरत शय है, सब्र व धैर्य से काम लीजिए, जीना एक कला है, उसे सीखिए, अपने लिए ना सही किसी के लिए जी कर देख लीजिए लज़्ज़त आ जाएगा। मौत तो सच है, एक ना एक दिन आनी है, उसका वेलकम कीजिए ना कि उसके गले पड़ जाइए। तो जब तक मौत ना आये जियो जी भर के, अपनों के साथ. ऑल द बेस्ट, थैंक्यू !!!
'आवाज़'
23/09/2017